Saraswati – Indus Civilization (सरस्वती – सिन्धु सभ्यता ) : Chapter – 1 History
Saraswati - Indus Civilization (सरस्वती - सिन्धु सभ्यता ) : Chapter - 1 History

विषय सूची
अध्याय पृष्ठ संख्या
- 1. सरस्वती – सिन्धु सभ्यता
- 2. प्राचीन विश्व की प्रमुख सभ्यताएँ
- 3. विश्व के प्रमुख दर्शन
- 4. मध्यकालीन समाज : यूरोप एवं भारत
- 5. ईसाइयत एवं इस्लाम : उदय व टकराव
- 6. भारत पर विदेशी आक्रमण
- 7. उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद
- 8. भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन
- 9. स्वतंत्र भारत के 50 वर्ष
अध्याय – 1
सरस्वती – सिन्धु सभ्यता
सरस्वती-सिन्धु नदियों के उपजाऊ मैदान में भारत की प्रथम नगरीय सभ्यता का उदय हुआ । इस सभ्यता के पुरास्थल बड़ी संख्या में सरस्वती व सिन्धु नदियों के किनारे पर होने के कारण इस सभ्यता को सरस्वती – सिन्धु सभ्यता कहा जाता है। हालांकि इस सभ्यता को ‘सिन्धु सभ्यता’ और ‘हड़प्पा सभ्यता’ के नाम से भी जाना जाता है कालानुक्रम की दृष्टि से इस सभ्यता को मेसोपोटामिया और मिस्र की सभ्यताओं के समकालीन माना जाता है।
सर्वप्रथम 1921 ई. में दयाराम साहनी ने पंजाब प्रांत में हड़प्पा और 1922 ई. में राखल दास बनर्जी ने सिंध प्रांत में मोहनजोदड़ो नामक पुरास्थलों का उत्खनन किया। जिसके फलस्वरूप इस अज्ञात भारतीय नगरीय सभ्यता के महत्व की ओर लोगों का विशेष रूप से पुरातत्त्वविदों का आकर्षण बढ़ा।
सरस्वती – सिन्धु सभ्यता का विस्तार पूर्व में आलमगीरपुर ( पश्चिमी उत्तर प्रदेश) से लेकर पश्चिम में सुत्कागेनडोर ( बलूचिस्तान) तक तथा उत्तर में मांडा (जम्मू) से लेकर दक्षिण में दायमाबाद (महाराष्ट्र) तक था। इस सभ्यता का क्षेत्रफल 2,15,000 वर्ग किलोमीटर है। इसके पुरास्थलों की दूरी पूर्व से पश्चिम तक लगभग 1600 किलोमीटर तथा उत्तर से दक्षिण तक लगभग 1400 किलोमीटर है। इसके पुरास्थल भारत में पंजाब, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तरी राजस्थान, गुजरात और पाकिस्तान में बलूचिस्तान, सिंध आदि प्रान्तों में मिलते हैं। राखीगढ़ी, बनवाली (हरियाणा), मोहनजोदड़ो (सिंध), हड़प्पा (पंजाब),धौलावीरा (गुजरात) और कालीबंगा ( राजस्थान) इस सभ्यता के प्रमुख नगर थे।
कालक्रम
कालक्रम की दृष्टि से सरस्वती – सिन्धु सभ्यता को तीन चरणों में विभाजित किया जाता है। रेडियो कार्बन तिथियों से पता चलता है कि 7500-7000 ई. पूर्व सरस्वती नदी घाटी को प्रथम कृषि संस्कृतियों के लोगों ने अपना निवास स्थान बनाना शुरू कर दिया था। 3200 ई. पूर्व में नगर – योजना के लक्षण, लेखन कला, मुहरों का विकास और नाप – तोल की पद्धति के साथ इन प्रथम कृषि संस्कृतियों का परिवर्तन विकसित ग्रामीण संस्कृति में हुआ जिसने 2600 ई. पूर्व तक नगरीय जीवन की विशेषताओं को आत्मसात् कर चरण – 2 लिया जिसके कारण भारत की प्रथम नगरीय सभ्यता के नगरों का उदय हुआ। 1900 ई. पूर्व तक आते आते इस नगरीय सभ्यता का बदलाव ग्रामीण संस्कृति में होना शुरू हो गया। 1300 ई. से पूर्व इस नगरीय सभ्यता का पतन हो गया ।
सरस्वती-सिन्धु सभ्यता की नगर योजना में समरूपता होते हुए भी कुछ क्षेत्रीय विभेद मिलते हैं। सभ्यता के नगरों में प्राय: पूर्व और पश्चिम दिशा में दो टीले मिलते हैं। पूर्व दिशा के टीले पर आवास क्षेत्र और पश्चिम टीले पर दुर्ग स्थित होता था । ये नगर मजबूत रक्षा प्राचीर से युक्त थे । रक्षा प्राचीर में बुर्ज बने हुए थे। नगर के आवास क्षेत्र में सामान्य नागरिक, व्यापारी, शिल्पकार, कारीगर और श्रमिक रहते थे । दुर्ग के अन्दर प्रशासनिक, सार्वजनिक भवन और अन्नागार स्थित थे।
सरस्वती – सिन्धु सभ्यता की नगर योजना में सड़कों का महत्वपूर्ण स्थान था। मुख्य सड़कें नगर को पांच-छः खण्डों में विभाजित करती थी। मोहनजोदड़ो में मुख्य सड़कें 9.15 मीटर तथा गलियाँ औसतन 3.0 मीटर चौड़ी थी। कालीबंगा, राखीगढ़ी व मीताथल की सड़कें भी चौड़ी थी। सड़कें कच्ची होती थी। साफ-सफाई पर विशेष ध्यान दिया जाता था।
सरस्वती-सिन्धु सभ्यता
चित्र 3: स्नानागार मोहनजोदड़ो
कूड़े-कचरे के लिए सड़कों के किनारे कूड़ेदान रखे जाते थे।
घरों की नालियाँ सड़क के किनारे बड़े नाले में गिरती थी, फिर नालों के माध्यम से पानी नगर से बाहर जाता था। नालियाँ
मुख्य रूप से पक्की ईंटों की बनाई जाती थी । इनकी चौड़ाई और गहराई आवश्यकतानुसार निर्धारित की जाती थी। प्रायः नालियों को बड़े आकार की ईंटों से ढका गया था। सम्भवतः नालियों की सफाई समय-समय पर की जाती थी।
सरस्वती-सिन्धु सभ्यता में आवासीय और सामुदायिक भवन मिलते हैं। आवासीय भवनों में तीन-चार कमरे, रसोईघर, स्नानघर और भवन के बीच में आँगन होता था । सम्पन्न लोगों के घरों में कुआं और शौचालय भी होते थे। भवनों में सीढ़ियों के प्रमाण भी मिलते हैं। मकानों में खिड़कियाँ, रोशनदान, फर्श और दीवारों पर पलस्तर के साक्ष्य मिले हैं। सामुदायिक भवनों में सभा भवन, अन्नागार और स्नानागार आदि मिलते हैं। इन भवनों में 1:2:3 और 1:2:4 अनुपात की ईंटों का प्रयोग होता था ।
गतिविधि : अपने आस-पास के सरस्वती – सिन्धु सभ्यता से संबंधित पुरास्थलों का भ्रमण करें।
सरस्वती – सिन्धु सभ्यता की कला
सरस्वती-सिन्धु सभ्यता की कला के अंतर्गत प्रस्तर, धातु और मिट्टी की मूर्तियों का उल्लेख किया जाता है। इसके अतिरिक्त मुहरें, मनके और मिट्टी के बर्तन इसके सौन्दर्यबोध को इंगित करते हैं । प्रस्तर मूर्ति में सबसे उल्लेखनीय 19 सेंटीमीटर लम्बी खण्डित पुरुष की मूर्ति मोहनजोदड़ो से मिली है, जो तिपतिया अलंकरण से
सरस्वती-सिन्धु सभ्यता
युक्त शाल ओढ़े हुए है। मोहनजोदड़ो से विश्वविख्यात धातु की नर्तकी की मूर्ति मिली है। पुरुषों, स्त्रियों व पशु-पक्षियों की भी मिट्टी की मूर्तियाँ मिली हैं। मानव की मिट्टी की मूर्तियाँ, आभूषण और शिरोवेषभूषा के साथ मिलती हैं। पशु और पक्षियों में बैल, भेड़, बकरी, कुत्ता, हाथी, सूअर, मोर, बत्तख, तोता और कबूतर आदि मुख्य रूप से मिलते हैं।
चित्र 5: पुरुष की मूर्ति
सरस्वती – सिन्धु सभ्यता की कला में मुहरों का महत्वपूर्ण स्थान है। मुहरें मुख्यतः चौकोर या आयताकार हैं। जिन पर सूक्ष्म उपकरणों से पशु- पक्षियों, देवी-देवता एवं लिपि को अंकित किया गया है। सेलखड़ी, गोमेद, शंख, हाथी दांत, सोने, चांदी और तांबे आदि के आभूषण (मनके, चूड़ियाँ, हार, कंगन, अंगूठी आदि) मिलते हैं। इनके अतिरिक्त खेल के उपकरण, मिट्टी के बर्तन और अन्य गृह उपयोगी वस्तुएं भी बनाई जाती थी।
राजनीतिक जीवन
चित्र 6: मिट्टी की मूर्तियाँ
मुहर, स्नानागार, अन्नागार, दुर्ग, कार्यशाला, लिपि, सामुदायिक भवन ।
सरस्वती – सिन्धु सभ्यता का प्रचार क्षेत्र अत्यन्त व्यापक था। लेकिन नगर योजना, पात्र परम्परा, उपकरण निर्माण, बाट, माप, मुहरें, लिपि आदि की समरूपता कुशल प्रशासन के अस्तित्व का संकेत करती हैं। लेकिन प्रशासनिक स्वरूप क्या था? यह निश्चित रूप से कहना अत्यंत कठिन होगा। हंटर महोदय ने यहाँ के शासन को गणतंत्रात्मक माना है। सार्वजनिक भवनों और नगर – दुर्ग का उपयोग सम्भवतः परिषद् के सदस्यों के लिए होता होगा। व्हीलर लिखते है कि, ‘सत्ता का स्रोत कोई भी क्यों न रहा हो, उसमें सम्भवत: धर्म को ही प्रमुखता प्राप्त थी।’ मेसोपोटामिया सभ्यता में नगर राज्यों का संचालन पुरोहित – शासकों के हाथ में था और सम्पूर्ण भूमि मंदिरों की सम्पत्ति होती थी। विद्वानों का मानना है कि, ‘सरस्वती – सिन्धु सभ्यता के प्रशासन का संचालन हड़प्पा और मोहनजोदड़ो नामक दो राजधानियों से होता था।’ लेकिन राखीगढ़ी और धौलावीरा के आकार को देखकर उनके महत्व को भी नकारा नहीं जा सकता। ये पुरास्थल भी सरस्वती – सिन्धु सभ्यता के महत्वपूर्ण प्रशासनिक नगरों के रूप में रहे होंगे।
सरस्वती-सिन्धु सभ्यता
चित्र 8: मिट्टी की कलाकृतियाँ
सामाजिक जीवन
चित्र 9: लिपि
सरस्वती – सिन्धु सभ्यता का समाज अनेक वर्गों में विभाजित रहा होगा। नगर को दुर्ग क्षेत्र और आवास क्षेत्र में विभाजित किया जाता है। नगर – दुर्गों में सम्पन्न व्यक्ति या शासक वर्ग निवास करता था। धौलावीरा के दुर्ग क्षेत्र को दो भागों में बांटा गया था, जिसमे संभवतः एक में शासक वर्ग और दूसरे में महत्वपूर्ण प्रशासनिक अधिकारी रहते होंगे। दुर्ग क्षेत्र में सुरक्षा और विशेष सुविधाओं का ध्यान रखा जाता था। आवासीय क्षेत्र में व्यापारी, सैनिक, अधिकारी, शिल्पी और मजदूर रहते थे। धौलावीरा में इस वर्ग के लोग भी दो अलग-अलग आवासीय क्षेत्रों में रहते थे। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में आवासीय क्षेत्र रक्षा – प्राचीर से भी घिरे हुए नहीं थे किंतु कालीबंगा,
सरस्वती-सिन्धु सभ्यता Saraswati – Indus Civilization
लोथल, बनावली और धौलावीरा में किलेबंदी के साक्ष्य मिले हैं। सरस्वती – सिन्धु सभ्यता के समाज में कृषक, कुम्भकार, बढ़ई, नाविक, श्रमिक, आभूषण बनाने वाले शिल्पी और जुलाहे आदि अन्य महत्वपूर्ण वर्ग थे।
सरस्वती-सिन्धु सभ्यता के लोग शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार का भोजन करते थे। इनका मुख्य भोजन जौ, गेहूँ, चावल, फल, सब्जियाँ, दूध, मांस (मछली, भेड़, बकरी, सूअर आदि) था। खुदाई में मिले चूल्हे, सिल बट्टे आदि से भोजन पकाने और पीसने के प्रमाण भी मिलते हैं। भोजन के लिए थाली, गिलास, कटोरा और लोटा आदि का प्रयोग किया
जाता है।
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सरस्वती – सिन्धु सभ्यता के निवासी वस्त्र और आभूषण के विशेष शौकीन थे। मोहनजोदड़ो से प्राप्त प्रस्तर की मूर्ति तिपतिया अलंकृत शाल ओढ़े हुए है, जिसका बायां कंधा ढका है और दाहिना खुला है। दाढ़ी विशेष रूप से संवरी हुई है और केश पीछे की ओर संवार कर एक फीते से बंधे हुए है। दाहिने हाथ पर एक भुजबन्ध बंधा हुआ है (चित्र 5 ) । वहीं से प्राप्त एक अन्य मूर्ति कमर पर पारदर्शी वस्त्र पहने हुए है। आभूषणों में मुख्य रूप से हार, भुजबंध, कंगन, अंगूठी आदि पहनी जाती थी। स्त्री और पुरुष दोनों ही आभूषण पहनते थे, जिससे निर्माताओं की कलात्मक अभिरुचि का परिचय मिलता है। धनी लोग सोने-चांदी, अर्ध-कीमती पत्थर, हाथी दांत आदि के जबकि निर्धन लोग पक्की मिट्टी, हड्डी और पत्थर के आभूषण पहनते थे । सरस्वती – सिन्धु सभ्यता के लोगों की केश विन्यास में विशेष रूचि थी। वे मुख्य रूप से हाथी दांत के कंघे और तांबे के शीशे प्रयोग करते थे। स्त्रियाँ काजल, सुरमा, सिंदूर भी लगाती थी । शतरंज का खेल और नृत्य उनके मनोरंजन के प्रमुख साधन थे।
सरस्वती – सिन्धु सभ्यता के लोग शिकार के भी शौकीन थे। बच्चों के मनोरंजन के लिए खिलौने, झुन्झुने, सीटियाँ और गाड़ियाँ आदि थी।
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आर्थिक जीवन
सरस्वती – सिन्धु सभ्यता के आर्थिक जीवन में कृषि का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान था । सरस्वती – सिन्धु का क्षेत्र बहुत उपजाऊ था। यहाँ के लोग मुख्य रूप से गेहूँ, जौ, चावल, मूंग, मसूर, मटर, सरसों, कपास, तिल आदि की कृषि करते थे। विशिष्ट प्रकार की फसलें, फसल बोने की विधि, कृषि के उपकरण, सिंचाई व्यवस्था आदि कृषि के व्यापक विकास को दिखाती है। मेहरगढ़ से प्राप्त पत्थर की दरांति, कालीबंगा से प्राप्त जुते हुए खेत और बनावली से प्राप्त हल का नमूना भी उच्च स्तरीय कृषि को प्रमाणित करते हैं। बड़े-बड़े संग्रहण केन्द्रों से भी व्यापक मात्रा में फसल उत्पादनों के बारे में पता चलता है।
सरस्वती – सिन्धु सभ्यता में बैल, गाय, भैंस, भेड़,बकरी, कुत्ता,गधे और सूअर को प्रमुख रूप से पाले जाते थे। इनका उपयोग दूध, मांस, खाल और ऊन आदि के लिए होता था। बैल का प्रयोग कृषि कार्य के साथ-साथ यातायात के लिए भी किया जाता था। इस सभ्यता के लोगों ने घोड़े और ऊँट को भी पालतू बनाया। हाथी का पालन भी संभवत: प्रारम्भ हो गया था। इनके अलावा जंगली सूअर, चिंकारा, हिरण और नील गाय आदि जंगली जानवरों के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के जलचरों तथा पक्षियों के प्रमाण भी मिले हैं।
उच्चस्तरीय उद्योग धंधों के साक्ष्य सरस्वती
– सिन्धु सभ्यता में मिलते हैं। सैंधव विभिन्न प्रकार के आभूषण, औज़ार और उपकरणों के लिए धातु की ढलाई की तकनीक से भली-भांति परिचित और उनके निर्माण में अत्यन्त निपुण एवम् दक्ष थे। कीमती पत्थर, शंख, सीप और हाथीदांत से विविध प्रकार के आभूषण बनाए जाते थे । राखीगढ़ी और भिरडाना से कार्नेलियन, तिगड़ाना से फियांस और मानहेरू से स्टेटाईट की कार्यशाला के प्रमाण मिले हैं। मिट्टी के बर्तन, ईंट उद्योग, उत्कीर्ण शिल्प और वस्त्र उद्योग भी अत्यन्त विकसित एवं प्रचलित थे। इस काल में सम्भवतः व्यापारिक लोगों के समूह का भी निर्माण हो गया था।
आयात-निर्यात, नाप-तोल की प्रणाली, मुद्राएं, यातायात के स्वरूप एवं साधनों से व्यापारिक गतिविधियों पर समुचित प्रकाश पड़ता है । उस समय धातु और अर्धकीमती पत्थरों का आयात और स्थानीय वस्तुओं का निर्यात किया जाता था। आंतरिक और विदेशी व्यापार स्थल तथा समुद्र दोनों मार्गों से होता था । स्थल मार्ग से व्यापार बैलगाड़ियों के द्वारा किया जाता था । समुद्री मार्ग के प्रमाण मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुहर पर अंकित नाव के चित्र और लोथल से मिले मिट्टी की नाव के खिलौने से मिलता है। मेसोपोटामिया के अभिलेख से पता चलता है कि उनके मेलुहा (सरस्वती – सिन्धु सभ्यता ) से व्यापारिक सम्बन्ध थे। लोथल से बंदरगाह के साक्ष्य भी मिले हैं। उत्खनन में बड़ी मात्रा में बाट और तराजू के पलड़े मिले हैं। तोल की इकाई 16 के अनुपात में थी । मोहनजोदड़ो से सीप का और लोथल से हाथीदांत के बने पैमाने भी मिले हैं।
सरस्वती-सिन्धु सभ्यता Saraswati – Indus Civilization
धार्मिक जीवन
सरस्वती – सिन्धु सभ्यता का अत्यंत विशिष्ट पक्ष उसका धर्म था जिसके अनेक तत्त्व परवर्ती भारतीय समाज में अंगीकृत हुए। वहाँ के लोग मातृ-शक्ति की पूजा करते थे। जिसके साक्ष्य नारी की मिट्टी की मूर्तियों और मुहरों पर नारी आकृतियों के अंकन से मिलते हैं। इन मूर्तियों पर धुएँ के निशान भी मिले हैं। यह सम्भावना है कि इन मूर्तियों के सामने पूजा के लिए कोई वस्तु जलायी गई होगी। इस सभ्यता के अंतर्गत मातृ-शक्ति की उपासना, प्राणी जगत एवं वनस्पति जगत की उपास्य देवी के रूप में प्रचलित थी।
पशुपति शिव की उपासना सरस्वती – सिन्धु सभ्यता के पुरावशेषों में देखने को मिलती है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुहर पर सींग वाले त्रिमुखी पुरुष को सिंहासन पर योग मुद्रा में बैठे दिखाया गया है। जिनके दाहिनी तरफ हाथी और बाघ, बायीं तरफ गेंडा और भैंसा दिखाया गया है। सिंहासन के नीचे दो हिरण खड़े दिखलाए गए हैं। इस मूर्ति को पशुपति शिव की मूर्ति माना जाता है। इस सभ्यता के लोगों द्वारा शिवलिंग की भी पूजा की जाती थी ।
सरस्वती – सिन्धु सभ्यता में पशु पूजा और वृक्ष पूजा के भी प्रमाण मिलते हैं। जिसमें मुख्य रूप से एक सींग वाले पशु, बैल, साँप, पीपल
सरस्वती – सिन्धु सभ्यता आदि की पूजा की जाती थी । यहाँ के लोगों के बीच योग का भी महत्व रहा है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुहर में एक पुरुष की आकृति पद्मासन मुद्रा में है और एक अन्य मुहर पर योग पुरुष की आधी खुली आंखें नासिका के अग्रभाग पर केन्द्रित दिखाई गई है। इस प्रकार योग के क्रिया-पक्ष का आंकलन मुहरों पर मिलता है। इस सभ्यता के
कुछ मुहरों पर स्वास्तिक चिह्न भी मिलता है। सरस्वती-सिन्धु सभ्यता में अंत्येष्टि संस्कार की तीन विधियाँ प्रचलित थी :
1. पूर्ण समाधिकरण
2. आंशिक समाधिकरण
3. दाह संस्कार ।
समाधि क्षेत्र नगरों से बाहर होते थे जिसके प्रमाण फरमाना, राखीगढ़ी व अन्य पुरास्थलों से मिले हैं। शवों का सिर प्रायः उत्तर की ओर तथा पैर दक्षिण दिशा की ओर होते थे। कंकालों के साथ मिट्टी के बर्तन, आभूषण, उपकरण आदि रखे जाते थे।
पतन के कारण
सरस्वती – सिन्धु सभ्यता के विघटन के एक नहीं बल्कि अनेक कारण उत्तरदायी रहे होंगे। इन प्रमुख कारणों का विवरण निम्न प्रकार से है!
सरस्वती-सिन्धु सभ्यता Saraswati – Indus Civilization
1. प्रशासनिक शिथिलता : सरस्वती – सिन्धु सभ्यता के अन्तिम चरण में प्रशासन में शिथिलता आ गई थी । जिसके कारण बस्ती का आकार सीमित हो गया और स्वच्छता में कमी आई। सड़कों और गलियों में अतिक्रमण होने लगा। दीवारें कम चौड़ी बनने लगी और नए मकानों के निर्माण में पुराने मकानों की ईटों का प्रयोग होने लगा जिसके कारण यह नगरीय सभ्यता धीरे-धीरे ग्रामीण संस्कृति में परिवर्तित हो गई।
2. जलवायु परिवर्तन : सरस्वती – सिन्धु सभ्यता के पतन के लिए जलवायु परिवर्तन को भी उत्तरदायी माना जा सकता है। वर्षा कम होने के कारण तथा सरस्वती नदी सूख जाने के कारण हरियाणा, राजस्थान और पंजाब में इस सभ्यता की बस्तियों का विनाश हुआ होगा ।
3. बाढ़ : मोहनजोदड़ो, चान्हुदड़ो, लोथल और भगतराव के उत्खनन से बाढ़ के प्रमाण मिले हैं। जिससे यह
अनुमान लगाया जाता है कि इस सभ्यता के पतन में बाढ़ की भी भूमिका रही होगी।
4. विदेशी व्यापार में गतिरोध : सरस्वती – सिन्धु सभ्यता के विदेशी व्यापार में कमी आने के कारण आर्थिक ढांचा कमजोर होने लगा जिसके कारण बहुमूल्य वस्तुओं की जगह स्थानीय उत्पादन की मांग बढ़ने लगी और लोगों के जीवन स्तर में भारी गिरावट आई। जो इस सभ्यता के पतन का मुख्य कारण बनी। 5. महामारी : मोहनजोदड़ो से प्राप्त 42 मानव कंकालों के अध्ययन से पता चला है कि इनमें से 41 लोगों की मौत मलेरिया जैसी महामारी से हुई है। जिससे अनुमान लगाया जाता है कि महामारी के कारण भी इस सभ्यता का पतन हुआ होगा।
1. सरस्वती – सिन्धु सभ्यता की नगर योजना की प्रमुख विशेषताएं क्या थी?
2. सरस्वती – सिन्धु सभ्यता के लोगों के सामाजिक और धार्मिक जीवन कैसा था ?
3. सरस्वती – सिन्धु सभ्यता की आर्थिक संरचना कैसी थी ?
4. सरस्वती – सिन्धु सभ्यता की कलात्मक विशेषताएं क्या थी?
आइए विचार करें
1. सरस्वती-सिन्धु सभ्यता के विस्तार और कालक्रम के बारे में विचार करें।
2. सरस्वती – सिन्धु सभ्यता के पतन के कारणों के बारे में विस्तार से चर्चा करें।
3. सरस्वती – सिन्धु सभ्यता की विश्व को क्या-क्या देन है?
आइए करके देखें
1. सरस्वती – सिन्धु सभ्यता के व्यापारिक केन्द्रों की सूची बनाएं। 2. हरियाणा में सरस्वती – सिन्धु सभ्यता के स्थलों की सूची बनाएं।